हर वर्ष आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि के अगले दिन देवशयनी एकादशी मनाई जाती है। देवशयनी एकादशी का व्रत 17 जुलाई दिन बुधवार यानी आज रखा जाएगा. देवशयनी एकादशी व्रत करने वाले हर व्यक्ति को सुख, समृद्धि और मोक्ष की प्राप्ति होती है. आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को ही देवशयनी एकादशी के नाम से जाना जाता है। धार्मिक मान्यताओं अनुसार इस दिन लक्ष्मी नारायण जी की पूजा की जाती है। इस दिन से भगवान विष्णु क्षीर सागर में विश्राम करने चले जाते हैं। एकादशी का व्रत रखने से मनुष्य के जीवन की सभी पाप कट जाते हैं और सुखों की प्राप्ति होती है। चलिए जानते हैं कैसे करते हैं? आषाढ़ी एकादशी यानी देवशयनी एकादशी की पूजा विधि, मुहूर्त और महत्व।
यह भी पढ़ें : राशिफल 17 जुलाई 2024: आज दिन बुधवार बन रहा है आदित्य राजयोग, इन राशियों की आर्थिक स्थिति होगी मजबूत।।
सनातन धर्म में एकादशी तिथि को बेहद शुभ माना गया है. हर माह में एकादशी व्रत एक कृष्ण और दूसरा शुक्ल पक्ष में पड़ता है. धार्मिक मान्यताओं के अनुसार एकादशी तिथि पर जगत के पालनहार भगवान विष्णु और मां लक्ष्मी की पूजा की जाती है साथ ही तुलसी की भी पूजा की जाती है. तुलसी की पूजा करने से माँ लक्ष्मी जी प्रशन्न होती हैं. साथ ही सभी शुभ फल की प्राप्ति होती है, सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं.

देवशयनी एकादशी पूजा विधि एवं व्रत कैसे करना चाहिए ?
देवशयनी एकादशी का व्रत रखने वालों को इस दिन प्रातःकाल उठकर स्नान करना चाहिए. स्नान कर पवित्र जल का घर में छिड़काव करना चाहिए. घर के पूजन स्थल अथवा किसी भी पवित्र स्थल पर प्रभु श्री हरि विष्णु की सोने, चाँदी, तांबे अथवा पीतल की मूर्ति की स्थापना करनी चाहिए. पूजा के दौरान भगवान विष्णु के मंत्रों का जाप जरूर करें. यदि मंत्रों जाप करना संभव न हो तो भगवान के 108 नामों का जाप कर सकते हैं. इसके बाद आरती कर प्रसाद वितरण करें। भगवान विष्णु की कोई भी पूजा तुलसी के बिना अधूरी मानी जाती है. इसलिए तुलसी के पास देशी घी का दीपक जलाकर मां तुलसी को लाल चुनरी चढ़ाकर 1 या 21 बार परिक्रमा करनी चाहिए. साथ ही मंत्रों का जप कर तुलसी माता को खीर, फल और मिठाई का भोग लगाएं। जीवन में सुख-शांति की प्राप्ति के लिए तुलसी माता से प्रार्थना करनी चाहिए. ।इस दिन आप जरूरतमंद लोगों को भोजन व दान दक्षिणा भी देनी चाहिए. इससे भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं.
पूजा के दौरान इन मंत्रों करना चाहिए जाप
पूजा के दौरान ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’, ‘ॐ नमो नारायणाय’, ‘हरे राम हरे कृष्ण’, ‘मंगलम भगवान विष्णु’ और ‘कृष्णये वासुदेवाय हरये परमात्मने’ जैसे शक्तिशाली मंत्रों का जाप करना चाहिए।
कैसे करने चाहिए योगिनी एकादशी व्रत के नियम यहां जानें
योगिनी एकादशी व्रत रखने वाले व्यक्ति को अन्न का सेवन नहीं करना चाहिए. एकादशी का व्रत रखने वाले व्यक्ति भी चावल सेवन नहीं करें.
इस दिन बाल, नाखून, और दाढ़ी नहीं कटवानी चाहिए . योगिनी एकादशी के दिन ब्राह्मणों को दान अवश्य करें. एकादशी व्रत के पारण करने के बाद अन्न का दान करना शुभ माना गया है.

देवशयनी एकादशी का शुभ मुहूर्त
ऐसा माना जाता है की इस दिन से सृष्टि का संचालन भगवान शिव करते हैं। इस साल देवशयनी एकादशी 17 जुलाई 2024 यानी आज है। पंचांग के अनुसार, आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि की शुरुआत 16 जुलाई 2024 की रात 8 बजकर 33 मिनट पर होगी. वहीं एकादशी तिथि का समापन 17 जुलाई की रात 9 बजकर 2 मिनट पर होगा.
एकादशी व्रत में क्या फलाहार करना चाहिए?।
आम, अंगूर, केला, बादाम, पिस्ता आदि चीजें एकादशी फलाहार में ग्रहण करना चाहिए। एकादशी व्रत के दिन फलाहार में कुट्टू का आटा और साबूदाना का सेवन भी कर सकते हैं। फलाहार वाली चीजों का पहले विष्णु जी को भोग लगाएं उसमें तुलसी दल जरूर रखें। इसके बाद ही फलाहार ग्रहण करना चाहिए।
जानिए देवशयनी एकादशी क्यों मनाई जाती है
देवशयनी एकादशी का दिन जगत के पालनहार भगवान विष्णु को समर्पित होता है। धार्मिक मान्यता है कि इस व्रत को करने वाले व्यक्ति को सभी सभी तरह के सुखों की प्राप्ति होती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार देवशयनी एकादशी के दिन सच्चे मन से भगवान विष्णु और मां लक्ष्मी की पूजा करने से व्यक्ति को अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है और सुख-समृद्धि में वृद्धि होती है।
हिन्दू धर्म में एकादशी का व्रत बहुत महत्वपूर्ण है। प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ पड़ती हैं। जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर २६ हो जाती है। आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को ही देवशयनी एकादशी कहा जाता है। कहीं-कहीं इस तिथि को ‘पद्मनाभा’ भी कहते हैं। सूर्य के मिथुन राशि में आने पर ये एकादशी आती है। इसी दिन से चातुर्मास का आरंभ माना जाता है। इस दिन से भगवान श्री भगवान विष्णु क्षीरसागर में शयन करते हैं और फिर लगभग चार माह बाद तुला राशि में सूर्य के जाने पर उन्हें उठाया जाता है। उस दिन को देवोत्थानी एकादशी कहा जाता है। इस बीच के अंतराल को ही चातुर्मास कहा गया है।

देवशयनी एकादशी की व्रत कथा
क बार देवऋषि नारदजी ने ब्रह्माजी से इस एकादशी के विषय में जानने की उत्सुकता प्रकट की, तब ब्रह्माजी ने उन्हें बताया- सतयुग में मांधाता नामक एक चक्रवर्ती सम्राट राज्य करते थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी। किंतु भविष्य में क्या हो जाए, यह कोई नहीं जानता। अतः वे भी इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनके राज्य में शीघ्र ही भयंकर अकाल पड़ने वाला है। उनके राज्य में पूरे तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल पड़ा। इस दुर्भिक्ष (अकाल) से चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। धर्म पक्ष के यज्ञ, हवन, पिंडदान, कथा-व्रत आदि में कमी हो गई। जब मुसीबत पड़ी हो तो धार्मिक कार्यों में प्राणी की रुचि कहाँ रह जाती है। प्रजा ने राजा के पास जाकर अपनी वेदना की दुहाई दी।
राजा तो इस स्थिति को लेकर पहले से ही दुःखी थे। वे सोचने लगे कि आखिर मैंने ऐसा कौन- सा पाप-कर्म किया है, जिसका दंड मुझे इस रूप में मिल रहा है? फिर इस कष्ट से मुक्ति पाने का कोई साधन करने के उद्देश्य से राजा सेना को लेकर जंगल की ओर चल दिए। वहाँ विचरण करते-करते एक दिन वे ब्रह्माजी के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुँचे और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। ऋषिवर ने आशीर्वचनोपरांत कुशल क्षेम पूछा। फिर जंगल में विचरने व अपने आश्रम में आने का प्रयोजन जानना चाहा। तब राजा ने हाथ जोड़कर कहा- ‘महात्मन्! सभी प्रकार से धर्म का पालन करता हुआ भी मैं अपने राज्य में दुर्भिक्ष का दृश्य देख रहा हूँ। आखिर किस कारण से ऐसा हो रहा है, कृपया इसका समाधान करें।’ यह सुनकर महर्षि अंगिरा ने कहा- ‘हे राजन! सब युगों से उत्तम यह सतयुग है। इसमें छोटे से पाप का भी बड़ा भयंकर दंड मिलता है।

इसमें धर्म अपने चारों चरणों में व्याप्त रहता है। ब्राह्मण के अतिरिक्त किसी अन्य जाति को तप करने का अधिकार नहीं है जबकि आपके राज्य में एक शूद्र तपस्या कर रहा है। यही कारण है कि आपके राज्य में वर्षा नहीं हो रही है। जब तक वह काल को प्राप्त नहीं होगा, तब तक यह दुर्भिक्ष शांत नहीं होगा। दुर्भिक्ष की शांति उसे मारने से ही संभव है।’ किंतु राजा का हृदय एक नरपराधशूद्र तपस्वी का शमन करने को तैयार नहीं हुआ। उन्होंने कहा- ‘हे देव मैं उस निरपराध को मार दूँ, यह बात मेरा मन स्वीकार नहीं कर रहा है। कृपा करके आप कोई और उपाय बताएँ।’ महर्षि अंगिरा ने बताया- ‘आषाढ़ माह के शुक्लपक्ष की एकादशी का व्रत करें। इस व्रत के प्रभाव से अवश्य ही वर्षा होगी।’ राजा अपने राज्य की राजधानी लौट आए और चारों वर्णों सहित पद्मा एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उनके राज्य में मूसलधार वर्षा हुई और पूरा राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया।
Trending Videos you must watch it